Tuesday, 6 June 2017

चिंता से चिंतन की ओर

"यह भी चला जाएगा"
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"चिंता रहित खेलना खाना, वह फिरना निर्भय स्वच्छंद
कैसे भूला जा सकता है ,बचपन का अतुलित आनंद ।"

सबको ही याद आता होगा न - सुभद्रा कुमारी चौहान की 'बचपन' कविता में वर्णित -'चिंता रहित खेलना खाना ' । बचपन की सुखानुभुति का हिस्सा जो है यह  निश्चिंतता ।
ज्यों-ज्यों जिंदगी आगे कदम बढाती है ,बचपन पीछे छूटता जाता है त्यों-त्यों आगमन होने लगता है चिंताओं का।
किसी प्रिय का अनिष्ट न हो जाए, उससे बिछोह न होजाए। जो हमारे पास है वह न खो जाए ,मनचाहा शीघ्र हो जाए...आदि अनेक बातें है जो मन ,बुद्धि को उलझन में डाल मनुष्य में डर पैदा कर देती हैं ।परेशानी का सबब बनती हैं ।इसी का नाम है चिंता।

कहते हैं कि चिंता चिता से भी बुरी होती है।
चिता में तो मनुष्य को एक बार ही जलना होता है ,पर चिंता तो तिल-तिल करके जलाती रहती है।

हालांकि चिंता न करने की सलाह हमें अपने  शुभचिंतकों ,परिवारजनों से समय-समय पर लाख मिल जाए ,पर हम चिंता करना नहीं छोड़ पाते है। स्वभाविक है जितना ज़्यादा स्नेह-भाव मनुष्य रखेगा उतनी ही चिंताएँ भी बढ़ेंगी । जितने लोगों की परवाह वह करता है ,जिनसे स्नेह रखता है उनकी भला चिंता हो भी क्यों न।
यों भी हमारी संस्कृति का तो आधार ही प्रेम भाव है।
मानवीय मूल्यों  की सीख, नैतिकता में भी तो यही कहा गया है कि प्राणी मात्र से स्नेह रखो । परमार्थ के लिए जियो।
फिर क्या उपाय किया जाए कि स्नेह भी रखें, परवाह भी करें पर चिंता न हो।
इसके लिए चिंता से चिंतन की ओर मुड़ना होगा। चिंतन करना होगा ताकि जीवन में सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ा जा सके।चिंतन से ही धीरज धर आगे बढा़ जा  सकता है।
जब किसी बात पर एकाग्रता से सोचा जाए ,किसी भी विचार की घैर्य से परख की जाए,उसके औचित्य को समझा जाए  इसे ही चिंतन तथा मनन कहा है।
चिंतन शांति और उत्साह का जनक होता है।
कोई कार्य मनोनुकूल नहीं होने पर या किसी भी प्रिय अथवा अप्रिय घटना घटित होने पर यह सोच कर संतोष किया जा सकता है कि यदि  इसका घटित होना हमारे हाथ मे नहीं था तो परिणाम के प्रति चिंता भला क्यों ?

हम सब जानते हैं कि कोई भी चीज़ संसार में हमेशा नहीं रहती। इतिहास साक्षी है कि संसार में विद्वान-ज्ञानी,वीर-योद्धा ,वैज्ञानिक-आविष्कारक सब यहाँ आए और अपना काल पूरा होते ही विदा हो गए।
तो फिर जितने दिन का संसार में बसेरा है क्यों न चिंतारहित बनने का अभ्यास किया जाए ।
गहराई से विचार करने ,चिंतन करने और मनन करने से चिंता से निजात पाई जा सकती है। चिंता के अस्तित्व को चिंतन के माध्यम से बदल कर ही निरंतर अभ्यास से हम समझ सकते हैं कि किस प्रकार मन  में स्नेहपूर्ण सद्भावना तो रखें पर स्वार्थपूर्ण चिंता से दूरी बनाकर।

कोई भी परिस्थिति हो हमेशा के लिए नहीं बनी रहेगी सोचकर मन को समझा लें तो तन स्वस्थ और मन सानंदित हो जाएगा ।
अब चिंतन करने से चिंता से निजात तो मिल जाती पर सदा के लिए नहीं। हमेशा यदि निश्चिंतता लानी है तो चिंतन को सतत रूप देना होगा। जो चिंतन के निरंतर अभ्यास से संभव हो सकता है।

श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को  काम,क्रोध, मद ,लोभ  ईर्ष्या द्वेष...आदि चित्तवृत्तियों को रोकने के लिए मन को वश करने की बात कही तब अर्जुन ने भी  हमारी ही तरह  असमंजस  की स्थिति में  यही पूछा था कि "वायु के समान चंचल मन को वश में किया कैसे जाए?"
श्री कृष्ण ने 'अभ्यासेन ही कौन्तेय ! ' कह सारी समस्या का निवारण सुझा दिया था।
यानी निरंतर अभ्यास से मन को वश में किया जा सकता है। अपने आप को समझाया जा सकता है कि कुछ भी शाश्वत नहीं है। अत: अच्छे-बुरे के लिए चिंता न कर सहजता से स्वीकार कर लें तो चिंता मुक्त हुआ जा सकता है।

इसी सदर्भ में बचपन में पिता द्वारा सुनाया हुआ एक वाक़या  याद आ रहा है।

पिताजी अपने बचपन में बिहार के भागलपुर में गंगा तट से कुछ दूर बने एक आश्रम में विद्याध्ययन के लिए गए थे।  गुरुजी के अलावा कई संत -महात्मा भी वहाँ वेदाध्ययन में लीन रहते थे । उनमें से एक संत वृद्धावस्था के कारण अधिकतर समय ध्यानयोग की मुद्रा में रहते और आगंतुकों को आशीर्वचनों से कृतार्थ किया करते थे।
उनके आशीर्वाद से सब का मंगल हो रहा था इसलिए आसपास में उनकी ख्याति फैलने लगी और लोग दूर-दूर से भी दर्शनार्थ आने लगे।
पिताजी बालक थे इसलिए बहुत उत्सुक होकर यह जानने का प्रयत्न करने लगे कि यह बाबा क्या कहते हैं कि इनके पास सुबह से शाम तक आशीर्वाद पाने वालों का ताँता लगा रहता है।
उनका आश्चर्य और बढ़ गया जब उन्होंने सब को ही उन्हें यही आशीर्वाद देते सुना -" यह भी चला जाएगा।"
उन्होंने सुना कि एक व्यक्ति ने अपने कष्ट बताए कि वह ग़रीब है रोज़गार के अभाव मे अकाट्य दुख से दुखी है तो उन्होंने अपनी चिर परिचित मुद्रा में आँख मूँदे-मूँदे ही आशीर्वचन दिया -"यह भी चला जाएगा।"
दूसरा एक अन्य धनाढ़्य सेठ प्रसन्नचित्त होकर  पिछले वर्ष के आशीर्वाद के फलस्वरूप समृद्ध होने पर धन्यवाद देने आया था । बाबा के लिए ऊनी दुशाला ( शॉल ) भेंट किया और अपनी सुखसम़द्धि के बारे में बताया। सेठ जी चरणों में प्रणाम कर  आशीर्वाद की कामना कर रहे थे।
लेकिन यह क्या?
सेठ जी तो बाबा के आशीर्वाद से पीढ़ियों तक सुख-समृद्धि में कमी न आए यह आस लेकर आए थे पर बाबा का आशीर्वचन तो वही -
"यह भी चला जाएगा।"
सेठ जी सुनते ही एकबार तो ठगे से भौंचक्के हो खड़े के खड़े रह गए थे।
लेकिन दूसरे ही क्षण सेठ जी को समझते देर नहीं लगी कि सुख हमेशा-हमेशा नहीं रह सकता है।सुख-दुख तो चक्रवत परिवर्तित होते रहेंगे।
पिताजी को भी उनका वच-"यह भी चला जाएगा ।"
जीवन भर याद रहा। वे अपने जीवन में चिंतन का अभ्यास कर चिंतामुक्त रह पाए । जीवन-भर चाहे विकट परिस्थितियाँ आई या सुगम राहों से मंजिल की ओर बढ़े ,बिना विचलित हुए चलते रहे।
स्थितप्रज्ञ का सा जीवन जिया और अन्य लोगों के लिए भी सुख में अहंकारी नहीं होने और दुख में धैर्य बनाए रखने के प्रेरणास्रोत बने रहे।
सबको धीरज रख  अभ्यास से मन पर विजय पाने और चिंता मुक्त बने रहने को प्रेरित करते रहे।
तो क्यों न "यह भी चला जाएगा" को याद रखते हुए चिंतन करें, चिंतन के सतत अभ्यास से स्थितप्रज्ञ की   प्रकृति विकसित करें । प्रेम,शांति व उत्साह से उर्ध्वगामी जीवन-पथ इख्तियार करें ।ताकि सुख-दुख में समदृष्टा बनकर मनोनुकूल अथवा प्रतिकूल  स्थिति में  चिंतन के द्वारा चिंतामुक्त रहा जा सके। 

प्रेरणा शर्मा (6-6-17)

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