Friday, 2 June 2017

माटी का मोल

'माटी का मोल'
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शाम का समय था  ,रेडियो में गाना बज रहा था –

' एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल
जग में रह जाऐंगे प्यारे तेरे बोल '

कौन नहीं जानता है इस गीत को?

सबको ही याद आ जाता है जब मनुष्य अपने अस्तित्व की महत्ता पर गौर करता है या उसे अपनी वाणी जनित व्यवहार को मधुर रखने के प्रति सचेष्ट होने को सचेत किया जाता है।
माटी का मोल भले ही इस संदर्भ में नगण्य सा लगे पर माटी के बिना कुछ भी तो संभव नहीं।
जीवन की कल्पना माटी के बिना कहाँ? शरीर की साँसो का आधार माटी का यह तन। बिना तन, न मन ,न मति। मतिविहीन अस्तित्व कहाँ?                    

बचपन  में अर्थ समझ आने से पहले ही 'कबीर' का दोहा न जाने कब कंठस्थ हो गया था–

"माटी कहे  कुम्हार से तू क्या रोंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोय।।

इतनी गूढ़ बात का अर्थ भला बालमन समझता भी तो कैसे?
थोड़ी समझ बढी तो लगा कि माटी कुम्हार के निर्माण
कार्य से दुखी है। कुम्हार के कारण माटी को कष्टकारी प्रक्रिया का हिस्सा बनना पड़ता है और वह उससे समय आने पर बदला लेने की बात कह रही है । ज़ाहिर है  सहानुभूति माटी के साथ ही रही थी तब ।
अब जब समय निकला और समझ के दायरे ने विस्तार लेना शुरु किया तो कुंभकार के कर्म , सृजन और विवशता में माटी से उसका एकात्म संबंध भी समझ आने लगा। माटी उसके लिए अनमोल ही रही है क्योंकि वह सृजनकर्ता है। माटी को आधार बनाता है नवनिर्माण का। तादात्म्य  बिठाता है  निराकार से साकार के मध्य। एकरूपता लाता है उसमें ताकि गढ़ सके नव-निर्मित्तियाँ।
माटी से साक्षात्कार हर दिन होता है उसका,जानता भी है वह अपने जीवन के नगण्य से मोल को भी। पर शायद अपने कर्म का निमित्त बन सतत साधक सा माटी में मिलने से पहले माटी का मोल चुकाना चाहता है ,माटी में ढ़लकर ।
घट के माध्यम से घट-घट में बसकर ।
दीप बन रोशनी का आधार बनकर, जगमग करना चाहता है जग को।
मोल  माटी का भी समझता है वह, कि है यह अनमोल।
तभी तो बनाकर गमला सौंपता है माली को ; ताकि वह भरकर माटी उसमें बोए बीज सुंदर फुलकारी के । रोप कर नई पौध , सींच सके घट के जल से। अब वह खुशी-खुशी माटी का मोल चुकाकर उऋण होने को तैयार रहता है ,माटी में मिलने के लिए।'                           

एक कुंभकार का दूसरे कुंभकार से मिलन तो आखिर माटी बनकर ही संभव हो सकता है'-सोचते हुए उसका साकार से निराकार होना अब मुझे भी सार्थक लग रहा है।                     अब मुझे भी समझ में आने लगा है कि जीवन की डगर का आधार ही माटी है।  जब साकार से निराकार होना ही जीवन की सत्यता है तो मैं भी सोचने लगती हूँ  कि मिट्टी से वज़ूद को माटी में मिलने से पहले  शब्दों के ताने-बाने पर भावनाओं की मिट्टी का लेप लगाकर इस जीवन को साकार रूप देने की क्यों न थोड़ी कोशिश ही कर ली जाए।                                   मन   बोल उठता है -                                                   'माटी का मोल' –है 'जीवन अनमोल'। इसके आगे न हैं कोई बोल, न ही कोई सकता इसको तौल।

प्रेरणा शर्मा(2.6.17)

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