'मुसाफिर '
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मैं मुसाफिर हूँ ,मुसाफिर ,
मुसाफिर हूँ, चलता चला जाऊँगा।
या तो मंज़िल मिल जाएगी
या चलने में माहिर हो जाऊँगा ।
हमराह गर मिल गया कोई
राह-ए-सफर का अदा शुक्रिया
वरना सपनों में शाम-ओ-सहर
ज़िन्दगी का सफर बिता जाऊँगा।
हर पड़ाव को मानकर एक मंज़िल
पाने को नई राहों से नई मंजिल
जोड़ूँगा नया कारवाँ ,चलूँगा नई डगर
ये काफ़िला ना रुकेगा कभी थककर ।
गिरूँगा अगर अंधेरों से घिरकर कभी तो
जलाकर चिराग सँभल ही जाऊँगा
मुसाफिर हूँ गलियों से ग़ुजरता ही सही
राहों को मक़सद-ए-मंज़िल बनाऊँगा ।
मुस्कुराते हुए आगे बढ़ता ही जाऊँगा
ज़िंदगी की राहों में चमन खिलाऊँगा
मुसाफिर हूँ यूँ थककर न बैठ पाऊँगा
मैं मुसाफिर हूँ चलता ही चला जाऊँगा ।
-प्रेरणा शर्मा (15-6-17)
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