Friday, 23 June 2017

लानत है

"लानत है '
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यह कैसी मानवता है ?
यह तो हद दर्जे की दानवता है।
रक्षक के ही भक्षक बन गए
यह बर्बरता की पराकाष्ठा है।
अपने ही वतन के लोगों ने
आज एक वतनपरस्त को
निर्दयी बन निर्ममता से
पत्थर बरसा कर मारा है।
मानव के वेष में दानव बन
सड़क पर उसे घसीटा है।
लात-घूँसे बरसाएँ है
मौत के घाट उतारा है।
वह था रक्षा को वचनबद्ध
कर्त्तव्यपथ पर डटा हुआ
देश की सेवा को प्रतिबद्ध
काल के गाल में समा गया।
अपने ही भाइयों से मरने को
क्या अयूब पंडित ने खाकी अपनाई थी?
शायद उसके मन -मस्तिष्क  में
ऐसे ही
ढ़ेरों सवालों की आँधी छाई थी।
अपने को कश्मीरी कहने वाले
दहशतगर्जों,पत्थरबाजों !
यह कैसा वहशीपन, कैसी बेदर्दी
दिल-ओ-दिमाग में समाई है?
अपने ही भाइयों का लहू बहाते
 छाती फट क्यों नहीं जाती है?
लानत है तुम पर , ऐसी करतूतों पर
जो तुम्हें जरा शर्म नहीं आती है?

आज सुबह  हम सबने पढ़ा अखबारों के मुख पृष्ठ पर छपा -
' बर्बर पत्थरबाजों ने डीएसपी को मार डाला।'
देशवासियों के दिलों में पीड़ा का अंबार लगाने वाला एक समाचार । यह समाचार एक ऐसी टीस उत्पन्न कर रहा है जो हर धड़कन में बढ़ती ही जाती है। एक देशभक्त का ऐसा मार्मिक अंत।
जब-जब ऐसा कुछ होता है कि देश के लिए नासूर बने देश की धरती पर बसने वाले ही अलगाववादी-देशद्रोही
बन अपने ही भाइयों का क्रूरता से अंत पर उतारू हो उठते हैं; तब-तब एक नहीं अनेक अनुत्तरित प्रश्न मेरे दिल-दिमाग में तांडव करने लगते हैं।
क्षोभ व खीझ के भावों को रोकने में असमर्थ मैं लोकतंत्र में कानून के रक्षकों को असहाय ,बेचारा हो
मारे जाने के  बर्बरतापूर्ण कृत्य से अपने को विचलित होने से नहीं रोक पाती हूँ। आज भी ऐसा ही कुछ हुआ, इसलिए
भावनाओं के चंद अल्फ़ाजो को कलम का सहारा दे अपने इस  दर्द को कम करनेके लिए  मरहम-पट्टी बाँधने का सा टुच्चा सा प्रयास भर कर रही हूँ ।
सोचती हूँ लानत है ऐसे लोगों पर जो इतने बेदर्द हो उठे हैं।
साथ ही लानत है देश की लाचार लोकतांत्रिक व्यवस्था की सरकारी मजबूरी और करोड़ों-करोड़ो देशवासियों की लाचारी ,बेबसी पर ; जो न जाने किस विवशता में मूक-बधिर की भाँति न सुन पा रहें हैं न  बोल पा रहे है । जो अपने वीरों का नाहक मरते जाना  देखे जा रहे हैं और सहे जा रहे हैं ।
क्या सब ऐसे ही चलता रहेगा? आखिर कब तक देश
मूक-दृष्टा बना रहेगा ?

-प्रेरणा शर्मा (24-6-17)

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