Sunday, 18 June 2017

छुट्टे रुपए

'छुट्टे रुपए'
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आज शाम की ही तो बात थी बेटे जनमेजय ने जब जेब से 5,10 और 20 के कुछ नोट और सिक्के 
रेणु की ओर बढ़ाए तो वह ज़ोर से हँस पड़ी थी ।
हँसने की आवाज स्वाभाविक से अधिक ऊँची होने के कारण मेरा ध्यान उधर चला गया । वैसे भी माँ का आधा ध्यान तो बच्चों की तरफ़ ही लगा रहता है चाहे वह कितनी  ही बूढ़ी क्यों न हो जाए ।
जनमेजय को प्यार के नाम जानू से ही सब जानते हैं और अब रेणु भी तो उसे यही कहकर बुलाती ।
जानू भी इस अटपटी सी हँसी को सुनकर चौंक सा गया।
"क्या हुआ डियर हँसने की कोई ख़ास वजह ?" वह पूछ बैठा । जवाब देने की बजाय वह और भी ज़ोर से हँसने लगी।
अचानक चुप हो रेणु कुछ गम्भीर सी होकर कहने लगी
"जानू !यह मत किया करो ।जब भी आप जेब के रुपए सम्भालते हो ,छुट्टे रुपए सिक्के मेरी ओर बढा देते हो मैं कोई बच्ची थोड़े ही हूँ ।"
"अरे मेरा तो यही कहना है कि तुम बच्ची नहीं हो ,तुम तो रानी हो मेरी ,पर  घर में और कोई बच्चा नहीं है,जिसे मैं ये चिल्लर  पकड़ा सकूँ । फिर भी रख लो घर में काम आते ही रहते हैं  पैसे।" कहते-कहते वह पैसे पास ही टेबल पर रख घूमने जाने को जूते पहनने लगा ।
रेणु अपनी दलील दे रही थी  "मुझे नहीं पसंद ये बच्चों की तरह  बहलाना। छुट्टे रूपयों की जगह बड़े नोट भी  तो दिए जा सकते है । उन्हें क्या छुट्टे नहीं करवाया जा सकता ?"
वैसे मुझे। चाहिए भी नहीं । इतने पैसे तो हैं मेरे पास ..."
वह अपनी बात पूरी करती उससे पहले ही जानू घूमने निकल चुका था ।
मेरा पूरा ध्यान उनकी बातों पर लगा था सो जैसे ही वह निकला मैंने पूछ ही लिया -"क्या बात है बेटी क्यों नाराज़ हो रही हो? वैसे तो यह तुम्हारा आपस का मामला है पर पैसे ही तो दे रहा था ले लेती ।"
मेरी बात सुनकर वह थोड़ी गम्भीर सी हो कहने लगी-"कभी -कभी भावुक कर देने वाली बातों को हँसी में उड़ा देना अच्छा होता है माँ । वैसे भी अब जानू के अलावा ग़ुस्सा  करूँ भी किस पर ? नाराजगी दिखाऊँ भी किसे ?"
कहते-कहते वह अतीत में खो गई और बताने लगी -
"माँ आप तो हमारे साथ नहीं थी इसलिए आपको नहीं पता कि शुरू में जानू की नौकरी लगी तो बहुत कम पैसे मिलते थे ,ख़र्चा पूरा था तो महीने का अंत आते-आते जब जानू की जेब में पैसे बहुत ही कम बच पाते तो मैं चुपके से उसकी जेब में अपने पास से रख देती । उसे पता चल जाता पर यह उसको अच्छा लगता ।हम को आस थी की ये दिन बदलेंगे ज़रूर । 
हाँ , ऐसा हुआ भी । कुछ किफायत की आदत और कुछ वेतन बढ़ोतरी से पैसे बचत में रहने लगे। अब जब भी जानू पैसे  गिनता  बड़े नोट के अलावा छुट्टे रूपये बच्चों को मिलने लगे।समय के साथ ऐसा करना उसकी आदत बन गया था।
आप तो जानती ही हैं है कि अब बच्चे तो शहर से बाहर हैं तो जानू वो पैसे मुझे...।
"मैं समझ गयी बेटी " उसकी बात पूरी होने से पहले ही मैं बोल उठी । एक माँ को माँ के दिल की  बात समझते देर कहाँ लगी थी । मैं समझ गयी थी कि रेणु को बच्चों के साथ  बिताए दिनों की याद दिलाने के लिए इतना  ही काफ़ी था।
"चलो तुम दो कप चाय बनाकर लाओ  ,आज साथ चाय पिएँगे ।" कहने पर जैसे ही वह रसोई में पहूँची ,जानू भी सैर से लौट आया था । बेटा एक कप चाय और बढ़ा देना कहकर मैं बेटे के पास  ही चली आयी थी।
बाहर बरामदे में रखी बेंत की कुर्सी पर बैठते हुए कह रही थी -बेटे! आज से छुट्टे रुपये मुझे दे दिया कर ।
मैं शाम को मंदिर जाती हूँ । वैसे भी कभी सब्जीवाला तो कभी धोबी ओर दूधवाला छुट्टे पैसों के लिए मेरी ही जान खाते हैं ।"
जानू ने पैसे मेरी तरफ़ बढ़ा दिए । अब मैं ही वहाँ बच्चा थी । जानू की आदत और रेणु की भावना को मेरी ज़रूरत में ढालते हुए छुट्टे रुपये लेकर मैं एक साथ संपोषित कर रही थी ।
रेणु भी चाय लेकर आ गई थी। हम तीनों चाय पी रहे थे ।
मैं समझ रही थी - रेणु और जनमेजय की मन:स्थिति ।
माँ हूँ ना ,जानती हूँ ,ममता की कहानी ।

माँ की ममता,

या हो पिता का प्यार 

यादों में लाने

मीठी-प्यारी-सी बातें 

ढूँढते हैं बहाने ।

रचयिता-

प्रेरणा शर्मा(16-6-16)

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