Tuesday, 11 October 2016

अरमानों का लिफ़ाफ़ा


'अरमानों का लिफ़ाफ़ा '

जश्न का अरमान दिल में लिए एक-एक पल की डोर को थामे जिंदगी आगे बढ़ती जा रही थी। आशा की मज़बूत डोर के सहारे
ही पहाड़ सी कठिनाइयों पर भी विजय पा ली थी। आगे बढ़ने की ललक ने पीछे मुड़ने की मोहलत ही कहाँ दी ! सपनों के महल अरमानों की रोशनी से जगमग हो  सदा उत्साहित जो करते रहे।
पर आज अचानक जिंदगी ठिठक सी क्यों रही है?
बेटे की शादी का समाचार पाकर यह ठहर सी क्यों रही है?
यही तो वह अरमान था जिसका बल मुझे संबल देता था।
"आज यह संबल मुझे बलहीन क्यों बना रहा है?
विचारों की गर्मी से गात शिथिल क्यों हुआ जा रहा है?"
सोचते हुए अतीत के साकार होते ही नयन सावन-मेघ बन झड़ी लगाने को आतुर हो उठे थे। सोच के समुद्र में डूबती हुई विचारों के भँवर-जाल में उलझती ही जा रही थी कि अचानक याद आया- "शादी की तारीख़  तो आज ही है।"
मन को समझाती हूँ-" बहू मैंने पसंद न की सही ; है तो चाँद का टुकड़ा ।"
"आख़िर बेटे की पसंद कोई कम तो नहीं है। शादी के बाद उसे ही दुल्हन का जोड़ा पहना सजा लूँगी। "
बेटे की पसंद पर नाज होने लगा है और आज आस की डोर फिर मज़बूत होती दिखाई दे रही है। मोबाइल में वीडियो कॉल करती हूँ। मैंने दिमाग़ के पट बंद कर दिल के द्वार खोल दिए हैं।
बेटे की तरक़्क़ी और सुखी जीवन की कामनाओं का संदेश भेजते हुए मेरे अरमानों का लिफ़ाफ़ा भी मैंने उसे ही सौंप दिया है।
मन के भाव होंठों पर आ गीत बन गए हैं और मैं गुनगुना रही हूँ-
चंदा है तू मेरा सूरज है तू ------।
तू ऊँचा उड़े
पंख बनें अरमाँ
मेरे दिल के।

रचनाकार-
प्रेरणा शर्मा (8-10-16)

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