Monday, 24 October 2016

मानिनी काम्या

'मानिनी काम्या'
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1-
लचक रही
कामिनी की कमर
मोहक लगे
मन में प्रीत जगे
सहज हौले-हौले।
2-
कुंतल केश
कमर पर झूलें
सधे क़दम
मंथर चाल चले
बल खाती बेल सी।
3-
मंद समीर
लहराता आँचल
मानिनी काम्या
इठलाते नयन
मधुर नेह भरे।
4-
हौले से डोले
मनवा संग-संग
पुरवाई सा
बिन पंख ही उड़े
जा कल्पना लोक में।
5-
निस्तब्ध बोल
अधरों पर धरे
तारीफ़ करें
या निहारें अपलक
चातक-चकोर से ।

  [रचना-प्रेरणा शर्मा]

इस तरह की कविता को 'तांका' कहते हैं।यह जापानी विधा है जिसमें हिंदी भाषी लोग भी अब खूब रचना कर रहे हैं।
इसमें अंत में तुकबंदी आवश्यक नहीं होती परंतु हर पंक्ति में निश्चित वर्ण
पहली में पाँच ,दूसरी में सात
तीसरी में पाँच चौथी में सात
और पाँचवी में सात वर्ण(अक्षर)
होते हैं।
    प्रेरणा शर्मा ,जयपुर (22-10-16)

भोर की शहनाई

हिन्दी की एक कार्याशाला में दिए गए शब्दों की सहायता से रचित यह  मेरी वह पहली  रचना है जिसको मेरे आत्मीय जनों की सराहना मिली और मैं लेखन के प्रति कर्तव्य-बोध को समझ पाई l
इसको  पोस्ट करने का  उद्देश्य उन सभी स्नेही जनों को धन्यवाद देना  भी है जिन्होने मुझे प्रोत्साहित कर मुझे सृजन के क्षेत्र की ओर कदम बढाने का होंसला दिया l लम्बी फेहरिस्त से बचने के लिये नाम  नहीं लिख रही हूँ l सबको हार्दिक धन्यवाद व  नमन !

"भोर की शहनाई"

बीती निशा हुई जब भोर,
सूर्य रश्मियाँ फैली सब ओर।
कृषक चला खेतों की ओर,
चिड़िया चहके नाचे मोर।
सड़कों पर लग रही सरपट दौड़ ,
वाहनों में मच रही हौड़ा-हौड़ ।
टीं-टीं टूं-टूं मच रहा शोर,
बच्चे चले स्कूल की ओर l
जैसे बँधे पतंग से डोर ,
बीती निशा हुई जब भोर।
चन्द्र-किरणों की हुई विदाई,
सूरज की लालिमा छाई।
तरुण-नारियाँ जल भर लाई,
नदियों ने ली अँगड़ाई ।
झीलों में गहराई समाई,
पेड़ों पर हरियाली आई।
अरुण-रश्मियों  डालीजान,
कमल खिले सरोवर पाल l
रंगों का मचा खूब धमाल ,
चीऊँ-चींऊँ करते पक्षी गान।
कुम्भकार ने किया कमाल,
सधे हाथों से लिया सम्भाल l
बाहर थपकी अंदर प्यार
सृजन किया उसने तत्काल।
चन्दा मामा की हुई विदाई,
भोर भई लालिमा छाई।
सूरज ने  जब ली  अंगडाई,
भोर की बज उठी  शहनाई l

     - प्रेरणा शर्मा ,जयपुर

Saturday, 15 October 2016

करवा-चौथ

'करवा-चौथ'
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कार्तिक मास की चतुर्थी के दिन
आता करवा-चौथ का व्रत ।
सुहागन नारियों का है त्योहार
युगों से  है यह प्यार का प्रतीक।
संचार-क्रान्ति के इस युग में
हम इसका देख रहें हैं
बदला- बदला सा स्वरूप।
सुबह होने से पहले ही
सरगी में भी होेते  तरह- तरह के
मँहगे रेडीमेड फ़ूड ।
सुंदर-सुंदर उपहारों का
सास-बहू में होता एक्सचेंज।
सुहाग-सामग्री के साथ में
होती नई डिज़ाइनर ड्रेस ।
नव-नवेली सा शृंगार सजे
मेंहदी का रंग खूब रचे ,
पर रूप-सज्जा के लिए
सुंदरता की होड़ में
पार्लर की दौड में 
सबका बढ़ रहा स्ट्रेस ।
परंपराओं का बदला दौर
पति का प्यार परखने पर ज़ोर ।
पति - पत्नी दोनों हैं व्रत निभाते
एक चाँद तो दूजा चाँदनी कहलाते।
भूख-प्यास की चिंता छोड़
सजसँवर कर सेल्फी की होड़
डी पी भी करनी होती है चेंज
फ़ेसबुक पर फ़ोटो अपलोड।
रंग बदलते ज़माने ने
सादगी पर दिया है पानी फेर।
डर है कहीं इस दौड़ में
हमें  ना हो जाए कहीं देर।
      -प्रेरणा शर्मा

बचपन की यादें

'बचपन की भीनी सी यादें'
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बचपन की भीनी सी यादें ,
रहती हूँ आँचल में बाँधे।
ये हैं जीवन की सौग़ातें ,
कुछ खट्टी कुछ मीठी बातें।

बचपन को यादों में लाऊँ
मन ही मन में मैं मुस्काऊँ।
एक बात जो यहाँ बताऊँ
अाप के मन को भी हर्षाऊँ।

मेरी अनुजा प्रतिभा थी , तब
छः वर्ष की नन्हीं नादान।
उम्र मेरी लगभग ग्यारह की
कुछ हो चली सयानी जान।

फूलों वाली फ़्रॉक पहनकर
जब मैं पहुँची उसके पास।
फ़ौरन मुझसे माँग उसे
पहन चुकी थी वह तत्काल।

फूली नहीं समाई प्रतिभा
सबको दिखा रही थी बारंबार ।
घूम रही थी इधर-उधर
पर नहीं रही थी उसे उतार।

मैं बैठी छुपकर सहमी सी
कर रही फ़्रॉक का इंतज़ार।
दे दे बहना कहूँ भी कैसे
वहआ भी नहीं रही थी आसपास।

तभी माँ ने जब देखा मुझको
छुपी पेड़ के पास।
मंद-मंद मुस्काई माँ भी
जानी जब मुझसे सब बात।

कुछ -कुछ लालच देकर उसको
जैसे-तैसे किया  तैयार ।
फ़्रॉक पहन मैं ख़ुश थी मानों
आ गई हो साँसों में साँस।

ये बचपन की भीनी यादें,
छोटी -छोटी बच्चों वाली बातें।
जीवन की सच्ची सौग़ातें ,
कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें।

रचना -
प्रेरणा शर्मा ,जयपुर

कहानी अपनी-अपनी

'कहानी अपनी-अपनी '
मानव का जीवन मानो कहानियों की किताब।हम सबके पास अपनी- अपनी कहानियाँ हैं इसके अंदर ।
कभी अपनी पढ़ते हैं, कभी दूसरे की सुनते हैऔर भावविभोर हो बैठतेहैं इन्हीं को पढ़ते ,सुनते ,देखते---!
जिंदगी का फ़लसफ़ा इतिफाक से इत्मिनान के सफ़र पर
निकल पड़ता है।न चाहत से शुरू हुआ ;न चाहने से रुक सकता।
यह तो हम पर निर्भर है कि हम गुज़रते कारवाँ के ग़ुबार को देख अफ़सोस करें या वक्त के कारवाँ के साथ क़दम मिला कर आगे बढ़ें ।
कहानी और संदेश सबके पास है। बात तो तब बनें जब हम इसका उपयोग लोगों के जीवन में प्रोत्साहित करने  सहयोग का हाथ बढ़ाकर ख़ुशियों का चमन महकाने में करें।हम उन कहानियों को  किसी के जीवन  को सुंदर बनाने और आगे ले जाने  के काम में लें।
इतिफाक और इत्मिनान के दरमियाँ यही हमारा इम्तिहान सही।
  -  प्रेरणा शर्मा(15-10-16)

Thursday, 13 October 2016

वीर सपूतों का बलिदान


   'वीर सपूतों का बलिदान'
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भारत माँ के लाडले वीर सपूत
उरी में जब शहीद हुए
हर आँख में आए थे आँसू
सिर श्रद्धा से थे झुके हुए।

पाकिस्तान में पोषित आतंकी
दुष्टों ने था छुपकर वार किया
नीच ,कायर,मक्कारों नें यह 
बड़ा ही कुत्सित काम किया।

कर दिया मानवता को शर्मसार
हिंसा का तांडव मचा दिया
क्रूर , हिंसक उन आतंकी  दरिन्दों ने
हा ! यह कैसा घोर अनर्थ किया।

सैन्य शिविरों में आग लगा करके
सोते वीरों पर मुँह-अँधेरे वार किया ।
पशुता की पराकाष्ठा तक पहुँच गए
धरती का आँचल लहुलुहान किया ।

यह आँच शिविरों से उठी आज
लग रही भारत के कोने-कोने में।
बदले की ज्वाला धधक रही
हम सब भारतीयों के सीनों में।

देश का बच्चा-बच्चा भी उद्यत है
वीरों के लहू का बदला लेने को।
हर दिल में अगन भभकती है
अब दुश्मन का घर धधकाने को।

वार्ता-समझाइश से कुछ काम न होगा
लोहा लेना होगा सीमा पर अब डटकर।
बदले में आग लगा उसे जलाना होगा।
दुश्मन की छाती पर सीधे चढ़कर

संकल्प करो अमर शहीदों का
बलिदान व्यर्थ ना  जाने देंगे सब।
पाक के नापाक इरादों की बारूद में
आँच लगा अब ख़ाक बना देंगे हम।।
( भारतीय वीर शहीदों को श्रद्धॉंजलि स्वरूप)
द्वारा - प्रेरणा शर्मा
19-09-16

चैरेवेति-चैरेवेति (चलते रहे-चलते रहे)

'चैरेवेति-चैरेवेति '
–––––––––
मन की किताब के पन्नों पर
लिखता -मिटाता रहा
अनगिनत कहानियाँ
वह हर रोज़ ही तो।
क़लम थी , काग़ज़ भी था
न थे तो बस वे  शब्द
जो कह सकें
उसके अहसासों को
रंग भरता रहा
आहिस्ता-आहिस्ता
अपनी कहानी के
किरदारों मे।

आम को ख़ास बनाने के
ख़्वाबों की ख़्वाहिशों में,
निशा के  बाद
भोर की चाहतों में
सोतेहुए भी जागता रहा ।
बुनता- उधेड़ता रहा
ज़िंदगी के लिए गरम कपडे ।
चाहतों को झोले में समेटे
कभी पगडंडी तो कभी
घाटियों से गुज़रता  रहा।
वह आदमी ही तो था
जो हर हालमें चरैवेति की
धुन में आगे बढ़ता रहा।

(कर्मशील मानवों को समर्पित)
रचना-
-प्रेरणा शर्मा  2-5-16

सपने

'सोई रातों के जागे सपने'
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सोई रातों के जागे सपने
उन्नींदी आँखों में पले;
जुगनू सरीखे ख़्वाब मनुज के
कभी चमके कभी मंद हुए ।

गहराई रातों के अँधेरें
शमां का उजाला दूर करे;
घनघोर घटा के बादल में
ज्यों पूनम का चाँद खिले।

मानव-मन के स्वप्न सजीले
कभी ठहरे कभी दौड़ पड़े;
उर-आँगन की गहराई में
अगणित आशा-दीप जले।

स्याह निशा के साये में
चमक दामिनी संग लिए;
भाव भरे बादल उमड़े तो
कभी गरजे कभी बरस पड़े।

बिजली की चमकीली रेख
क्षण-भर आलोकित पथ देख;
मृग मरीचिका से सपनों में
आबाद हुए मन के वीराने।
रचना-
प्रेरणा शर्मा -29-8-16

माँ जगदंबे

माँ जगदंबे !
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1-
शक्तिदायिनी
हे माँ दुर्गे !वर दे
सेवा-भाव से
शृद्धावान कर दे
भक्ति-शक्ति भर दे ।
2-
दिव्य-रूपिणी
सर्वस्व प्रदायिनी
माँ जगदंबे!
समृद्ध जग कर दे
स्नेह-सिक्त मन दे।
3-
सर्वज्ञायिनी
विपत्ति- निवारिणी
संबल-दाता
दुर्जन संहारिणी
बल-युक्त कर दे।
4-
मातृ भवानी!
दिशा-प्रबोधिनी
जन-जन को
हिम्मत से भर दे
साहस का वर दे।
5-
दीप-ज्योति सी
प्रखर प्रकाशिनी
दीप्त शिखा से
जग-तम हारिणी
मन-तम हर दे।
6-
माँ तू जग की
जग का तन-मन
निर्मल कर
उज्ज्वलता भर दे
ज्ञान-ज्योति वर दे।
7-
सौख्यवर्धिनी
सद्भावना भरिणी
आदि-शक्ति माँ
शुभ-शांति कर दे
समता का वर दे।
रचना----
प्रेरणा शर्मा(10-10-16)

यादों के वस्त्र

'यादों के वस्त्र'
––––––––
आदमी की जिंदगी ,अनुभवों का पिटारा ! पिटारे में वर्षों से सहेजे हुए यादों के नायाब वस्त्र , भाँति-भाँति के ! जितने प्रकार उतने ही उपयोग | पहनना,ओढ़ना,बिछाना,सजाना!और भी अनेक.....| जरूरत के माफ़िक | स्पर्श का सुख; टेक्सचर जैसा हो - खादी , मलमल,रेशमी,पॉलिएस्टर---|कभी नरम-मुलायम तो कभी खुरदरा सा | धोना,   निचोड़ना,सुखाना ---| नित-नित,यही तो करता है आदमी |
अजब हैआदमी भी ! कभी गोल-मोल कर मन की गठरी में बंद करता है इन्हें ,तो कभी इश्तरी से सलवटें मिटा,मन की आलमारी में करीने से  सहेजकर,तह दर तह बनाताहै| कभी  चहेती पोशाक बना हैंगर पर लटकाता है और भाव-विभोर हो निरखता जाता है | कुछ मन को इतना भा जाते हैं कि पहनकर उतारने को मन ही नहीं मानता | अलग ही रूप अलग ही काम |
साडी के आँचल सा लहराते, दुपट्टा बन गलबहियाँ डाल इतराते, कमीज बन सीने पर बोताम लगाते ,पतलून बन कमर पर आराम फरमाते ,कुरता-पायजामा सा शाही अंदाज दिखाते; नाना रूप ,नाना रंग |
एक से बढाकर एक |
डिजाइन तो देखिए –बेजोड़! कोई सुर्ख लाल फूलों वाली तो कोई बेल-बूँटेदार | किसी पर लेस तो कोई गोटेदार |किसीपर हाथ की उम्दा कढ़ाई-कश्मीरी कांथा,सिंधी---तो कोई पेंटिंग और प्रिंटिंग में लाजवाब | वाह भई वाह!
अतीत की जितनीसन्दूकचियाँ खोलो, सब ठसाठस|एक नहीं अनेक |द्रोपदी के चीर से बढ़ते जाते यादों के पट | कृष्ण भगवान ने तो कहा था –
“वस्त्राणि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति ------“ पर ये यादों के वसन कभी जीर्ण होते हैं भला !
यादों के वस्त्रों का खजाना बढता ही जाता है |जीर्ण हुए बिना ही नवीन जो आ जाते हैं ये |अब आदमी कम्प्रेशर और वेक्यूम जैसी तकनीक का सहारा लेकर कम जगह में ज्यादा और अधिक समय तक संभालने में लगा रहता है और एक दिन अचानक यादों के अंबर में जिंदगी को सहेजता-सहेजता ही अंबर की ओर कूच कर जाता है ,ढाई ग़ज वस्त्र में सिमटकर|

                    लेखिका – प्रेरणाशर्मा

Tuesday, 11 October 2016

अरमानों का लिफ़ाफ़ा


'अरमानों का लिफ़ाफ़ा '

जश्न का अरमान दिल में लिए एक-एक पल की डोर को थामे जिंदगी आगे बढ़ती जा रही थी। आशा की मज़बूत डोर के सहारे
ही पहाड़ सी कठिनाइयों पर भी विजय पा ली थी। आगे बढ़ने की ललक ने पीछे मुड़ने की मोहलत ही कहाँ दी ! सपनों के महल अरमानों की रोशनी से जगमग हो  सदा उत्साहित जो करते रहे।
पर आज अचानक जिंदगी ठिठक सी क्यों रही है?
बेटे की शादी का समाचार पाकर यह ठहर सी क्यों रही है?
यही तो वह अरमान था जिसका बल मुझे संबल देता था।
"आज यह संबल मुझे बलहीन क्यों बना रहा है?
विचारों की गर्मी से गात शिथिल क्यों हुआ जा रहा है?"
सोचते हुए अतीत के साकार होते ही नयन सावन-मेघ बन झड़ी लगाने को आतुर हो उठे थे। सोच के समुद्र में डूबती हुई विचारों के भँवर-जाल में उलझती ही जा रही थी कि अचानक याद आया- "शादी की तारीख़  तो आज ही है।"
मन को समझाती हूँ-" बहू मैंने पसंद न की सही ; है तो चाँद का टुकड़ा ।"
"आख़िर बेटे की पसंद कोई कम तो नहीं है। शादी के बाद उसे ही दुल्हन का जोड़ा पहना सजा लूँगी। "
बेटे की पसंद पर नाज होने लगा है और आज आस की डोर फिर मज़बूत होती दिखाई दे रही है। मोबाइल में वीडियो कॉल करती हूँ। मैंने दिमाग़ के पट बंद कर दिल के द्वार खोल दिए हैं।
बेटे की तरक़्क़ी और सुखी जीवन की कामनाओं का संदेश भेजते हुए मेरे अरमानों का लिफ़ाफ़ा भी मैंने उसे ही सौंप दिया है।
मन के भाव होंठों पर आ गीत बन गए हैं और मैं गुनगुना रही हूँ-
चंदा है तू मेरा सूरज है तू ------।
तू ऊँचा उड़े
पंख बनें अरमाँ
मेरे दिल के।

रचनाकार-
प्रेरणा शर्मा (8-10-16)