Monday, 29 October 2018

परिवर्तन

 परिवर्तन प्रकृति का नियम है। 
 मौसम हो या उम्र ।  सूरज हो या चाँद । ऋतु हों या मन ...परिवर्तन सब में अवश्यम्भावी होता है।।कुछ सहज और  शनै-शनैः तो कुछ आकस्मिक ,अचानक ।
 सूरज दिन में कई तेवर बदलता है तो चाँद की तो पूछो ही मत | इसकी कलाएँ तो कलाबाजियाँ खाती ही रहती हैं  
 यहीं  से शुरू होती है  कुछ-कुछ  उसकी कल्पना की ,उसकी    कला की,उसके  बदलाव की  कहानी | 
शुद्ध विज्ञान के गूढ़  रहस्य नहीं समझ आते | जिज्ञासा अपार ; वह  ज्ञान का एक  सिरा पकड़ती तो दूसरा छूटता  दिखता |विज्ञान की शुद्ध  तकनीक ,तर्क ,तथ्यों और सिद्धांतों का आधार को समझ  पाना भला तब उसके बस में कहाँ?

 बदल रहा था प्रति-पल ,हौले-हौले ...बचपन ने कदम  बढाएऔर  दहलीज़ पर खड़ी किशोरावस्था ने हाथ थाम  लिया|यौवन से मुलाकात हुई तो मन को पंख लग गए मानों !
 कला की कश्ती में जीवन के तरानों को गुनगुनाते सितारों की  चमक लुभाने  लगी  | वह भी उसी कश्ती में सवार हो चली |  सितारों की चमक से खुद जगमगाने लगी | भाने लगा अपना  ही रूप|  इठलाने,इतराने की कला  आने लगी| रिश्तों के  रेशमी धागों से जादुई दरी बन आकाश छूने लगी |  सतरंगी  ख़्वाबों की वादियों में घूमते-घूमते
 बाग-ए वफ़ा की महक उसमे भी आने लगी | शरद पूर्णिमा के  चाँद की तरह सोलह कलाओं से शीतलता बरसाने की चाह में  पूर्णता पाने लगी | इधर वक्त भी तो पंख लगाकर उड़ने लगा  था |
 कृष्णपक्ष के चंद्रमा की तरह उम्र ढलने लगी | वक्त के आईने  में अपने अक्स को अपने आप से छुपाने लगी |अपने आप से  बात करने से घबराने लगी | जो सहज था वह आकस्मिक  लगने लगा | उम्र घर की दहलीज़ के अंदर आशियाँ तलाशने  लगी |

यह शाश्वत सत्य होते हुए भी  इस परिवर्तन को  सहज ही स्वीकार कर पाना  कठिन लगने लगा  ।यों अचानक फिर एक बार विज्ञान से नजरें मिलाने का मन होने लगा | कला और विज्ञानं सब घुल-मिल से गए | जीवन के अनुभवों की रस्सी के सहारे  तन-मनको  झूलाते  हौले-हौले  मंजिल  के करीब जाने में कुछ नवीन तलाशने लगी थी |
  सच हैं एक बार जिस भी व्यक्ति,वस्तु ,स्थान  देश, आदि के साथ रहते-रहते वे  पहचाने से लगने लगते है । वह उन्हीं के अनुसार व्यवहार को ढा़ल लेता है और उनके तरीके से काम की आदत बना लेता है। 
जब इनमें परिवर्तन होता है तो स्वभाविक है कई सारी शंकाएँ और विचार  जन्म लेते हैं। निश्चिंत नहीं रह पाते
मन में विचलन सा महसूस होता है। फिर यह तो उसका अपना वजूद था !
नया कैसा होगा?   इसके लिए अब समय के पंख वह  स्वयं के  लगा रही  थी |
~प्रेरणा शर्मा (29-10-18 )