'आज का इतवार'
––––––––– -प्रेरणा शर्मा
इतवार की सुबह
बुन रही थी ख्वाब
जागते हुए सोने और
देर से उठने के लिए।
पता है ना आपको
घर सारा जागा था
कल देर रात तक ,
सुबह इतवार मनाने के लिए।
सुबह,माँ जाग तो गई थी
रोज की आदत जो हो गई थी
मगर सोते-सोते ही
करवटें बदल रही थी।
दादी की पूजा की घंटी
थम ही नहीं रही थी
अलार्म की आवाज सी
कानों में बज रही थी।
पिता अनमने से उठ बैठे थे
आज का अखबार हाथ में लिए
अंगड़ाई और उबासी को मिलाते हुए
चाय की चुस्कियों का ख्वाब जगाते हुए।
दादा जी नाश्ते के इंतजार में
मेरे पेट में भी चूहे लगे दौड़ने।
रसोईघर में लगे दोनों झांकने
वहाँ की शांति हमको लगी काटने।
चाय से ले सैंडविच तक का बीड़ा
हमने आज अपने कंधों पर उठाया।
कुछ फलों पर भी हाथ आजमाया
लगा सूरज पश्चिम से निकल आया।
दादी की घंटी ने
थोड़ा विराम पाया
जब तिरछी नजर को
रसोई की ओर घुमाया।
माँ और दादी ने जब
हमको रसोई में पाया
एक मीठी सी मुस्कान का
तोहफा हमने तुरंत पाया।
आज इत्मिनान का इतवार
यों हमने मिलकर बिताया
आज माँ-दादी के हिस्से में
उनका इतवार भी आया।
-प्रेरणा शर्मा ,जयपुर (17-9-17)