Sunday, 23 July 2017

'बरखा - झड़ी'

'बरखा-झड़ी'
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सुबह बारिश की टप-टप से नींद खुली तो  आँखें मलते हुए राधिका ने माला को चाय बनाने को कहा और
खुद बाहर बरामदे में न जाने किस ओर टकटकी लगाए खडी़ की खडी़ रह गई।
बारिश और तेज हो गई है। रिमझिम सी झड़ी झमाझम होकर पेड़-पौधों का तन-मन भीगोने लगी। राधिका सामने आम के पेड़ की शाखा पर कल्पना के झूले डालने में इतनी व्यस्त हो गई कि माला कब चाय लेकर उसके पास आ गई पता ही नही चला।
" मैडम ,आज आपको जाना नहीं है क्या?"
आवाज सुनकर ही उसे ध्यान आया कि वह चाय ले आई थी।
"आज रविवार है ना! आज नहीं जाऊँगी।"
"पर आप तो अक्सर रविवार को घर पर नहीं रहती हैं ना।"
तुम्हे कहा ना आज मैं घर पर ही हूँ । अब जाओ अपना सफाई का काम कर लो। कहकर भेज दिया था माला को तो वहाँ से ।
पर "ठीक ही तो बोला था माला ने  " सोचने लगी थी वह।
अकसर रविवार को निकल ही तो जाती है घर से वह ।  घूमते-घामते मुड़ जाते हैं कदम ,एक छोटे से पालना घर की तरफ ,जहाँ किलकारियाँ तो गूँजती हैं पर उनकी जन्मदात्रियों तक वे किलकारियाँ  सुनाई नहीं देती थी। उन्हीं किलकारियों को जीते हुए उसके रविवार जो बीतने लगे थे ।

वह शायद डरने लगी है  वर्तमान पर अतीत के हावी होने से ; इसीलिए तो कुछ वर्षों से वह व्यस्त रखने के लिए जॉब करने लगी  थी ।  एम.बी.ए. किया हुआ था उसने और अकाउंट्स का काम भी अच्छे से सँभाल सकती थी  । इस कारण घर के पास ही के एक ऑफिस में मैनेजर की पोस्ट बिना भाग दौड़ के ही लग गई थी ।
सोमवार से शनिवार ऑफिस में बीत जाते दिन।
अकसर रविवार को भी निकल ही जाती है घर से वह । 

पर आज की बारिश ने फिर से याद दिला दी थी  पिछले वर्षो की बारिश की बातों को। 
तब घर में रहना भाता था उसे। घर में रहते हुए न सोमवार अलग लगता था न रविवार सब एक जैसे थे । कौनसी छुट्टी कब आती है पता ही नहीं चलता था कभी । सब दिन एक सी रौनक लिए हुए होते थे ।

राधिका आज इत्मिनान से पूरा इतवार यादों के झूले में झूलते हुए बिता देना चाहती थी।

उसे याद आ रही थी  किलकारियाँ भरते,बारिश में भीगते, मस्ती करते कृतिका और कार्तिकेय की।
उसके दोनों बच्चे दूर रहते है फिर भी कहाँ भूल पाती है ।
याद आ रहा था उसे एक हाथ में छतरी थामें बरसात से भीगने से बचाने के लिए स्कूल बस से आ रहे अपने दोनों बच्चों को लेने जाना। स्कूल बस का स्टैंड घर से थोडी़ दूरी पर था । सड़क पर घुटनों तक का पानी भर जाता था। छतरी दो होती थी  पर उनको बैग बचाने के काम में ले बच्चे पानी के बीचों - बीच छपा-छप-छई करते हुए मुँह पर फुहारों का आनंद ले रहे होते  थे और भीगते भागते घर पहुँचते। छतरी और बैग माँ के हवाले कर छत से बह रहे बरसाती नालियों के नीचे दोनों का नहाना जैसे कल की ही बात हो। रही सही कसर  प्रणव पूरी कर देते थे  उनके साथ छपाक-छप मचाते खूब नहाते थे  तीनों बारिश में। उन दिनों लंच में पापा -बच्चे साथ -साथ ही जो पहुँचते थे।
तेज बारिश वाले दिन  हर साल बारिश में भीगना और छत से गिर रही बरसाती नाले के नीचे मौका मिलते ही उछल-उछल कर नहाना जैसे कल की ही बातें हों।
आज प्रणव शहर से बाहर गए हैं अपने काम के सिलसले में। दोनों बच्चों की जॉब भी यहाँ नहीं है ।
कहते हैं बीता समय लौट के नहीं आता पर अतीत की यादें जाती ही कहाँ हैं मन से।
आज राधिका फिर से उन तीनों को बारिश भीगते हुए छत से कूदते बरसाती पानी में भीगते हुए मन ही मन निहार रही है ।  आज कहने को वह घर पर अकेली है पर उसने आम पेड़ के नीचे जाने की हिम्मत कर ली है ।
आज भी उसने व्यस्त रखा है अपने आपको ।  आज  उसने वर्तमान में जीने की एक कोशिश भर की है।
अतीत के सुखद साये को वर्तमान के साथ-साथ रखने की हिम्मत जुटाने लगी है राधिका।
आज रविवार है बरखा की झडी़ रुकने का नाम नहीं ले रही है। कभी धीमें तो कभी तेज हो-हो कर  मन में  भावनाओं की नदियाँ तो बहा रही है पर राधिका ने जीवन नौका में हिम्मत की पतवार बना मन का चप्पू थामने  की ठान ली है।
रचना-
प्रेरणा शर्मा,जयपुर
( 23-7-17)



Tuesday, 11 July 2017

मेडिकल सर्टिफिकेट

तीन दिन से दीपक सरकारी अस्पताल के इस कमरे से उस कमरे मे घूम-घूमकर थक सा गया था।
अब तो उसे वाकई समझ नहीं आ रहा था कि वह कहाँ जाए और क्या करे कि उसका मेडिकल सर्टिफिकेट बन जाए जो कि इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन के लिए जरूरी था।
उसके पिता  कोई  नेता,अधिकारी, वकील, पत्रकार , डॉक्टर...नहीं है। किसी बड़े पद पर कार्यरत किसी को जानते भी तो  नहीं है कि कोई सिफारिश ही हो  जाए।
जी, हाँ ! वह ऐसा ही सोच रहा था है और  सच्चाई भी
यही थी ।
एक साधारण आम आदमी के लिए छोटे-छोटे काम भी बडे़ इम्तिहान की माफ़िक होते हैं।
सोचकर वह निढा़ल सा हुआ जा रहा था कि अस्पताल में एक उसी के हमउम्र युवक की नजर उससे मिली ।वह युवक अपनी दादी को दिखाने अस्पताल आया था।
वह भाँप गया था उसके चेहरे से उसकी परेशानी से ।
उसके हाथ में कागजों को देख पूछ बैठा दीपक से और उसका अनुमान सही था ।
उसका नाम जय था और वह भी एक साल पहले इसी तरह अव्यवस्था का शिकार हो समय की बर्बादी के लिए विवश  था।
पर उसकी परेशानी को  एक सहृदय डॉक्टर ने  समझ सही मार्गदर्शन  दे मेडिकल सर्टिफिकेट जारी किया था।
आज तक उसे वह नाम याद था । उसने डॉ.कपिल मेनन का नाम झटपट उसके कानों में उंडेल सा दिया था।
वह भागता हुआ सा डॉ.मेनन के पास जैसे ही पहुँचा देखा वो अपनी कुर्सी पर नहीं थे।
दरवाजे पर खड़े एक आदमी ने बताया कि वे कभी आते ही होंगे आप इंतजार कर लो ।
उसकी साँस में साँस आई ,आस बँधी ।
पाँच मिनट बाद ही डॉ.कपिल आए ।साथ में एक आदमी भी था । बातों से पता चला कि वह
इलेक्ट्रीशियन है जिसको वे अपनी जेब से पैसे दे रहे थे क्योंकि उनके कहने से ही उसने रात में आकर अस्पताल में बिजली की लाइन ठीक की थी।
इलेक्ट्रीशियन मना भी कर रहा था पैसे के लिए पर डॉ कपिल उसकी परेशानी समझते थे इसलिए आग्रह कर पैसे जेब में रख ही दिए थे।
दीपक को अब विश्वास सा होने लगा था कि आज वह सही  जगह आ गया है ।
दीपक को बैठने के लिए कह स्वयं भी कुर्सी पर बैठ डॉ.कपिल ने दीपक से बात की तो पता चला कि मेडिकल सर्टिफिकेट के लिए मेडिकल संबधी जाँच  करवाने और उनकी रिपोर्ट्स आने पर ही उसे कॉलेज में एडमिशन मिल सकेगा।
उसे अस्पताल में सही मार्गदर्शन के अभाव में समय खराब करने पर मजबूर होना पड रहा है ।
डॉ कपिल को माजरा समझते देर नलगी थी।उसके
साथ एक चपरासी को मेडिकल के लिए भेज कर जाँचे करवाकर सर्टिफिकेट दे दिया ।
दीपक कभी डॉ को तो कभी अपने मेडिकल सर्टिफिकेट को देख रही था। उसके हाथ डॉ के चरण- स्पर्श को झुक रहे थे।डॉ के प्रति श्रद्धा भाव जो कल तक कहीं गुम होने जा रहे थे ,लौट आए थे।
डॉ कपिल नेमानव का मानव के प्रति  खोते विश्वास को कायम रखने में कामयाब हो मानवता का परिचय दिया था।
@प्रेरणा शर्मा ( जयपुर)

नानी का घर

'नानी का घर'
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नानी के घर जमकर खेले
कुल्फी हमनें खूब जमाई।
आरेंज बार से जीभ रंगाई।
क़िस्से-कहानी नानी ने सुनाई।

लस्सी पीते मार मलाई 
मीठी सिकंजी सबको भाई।
सबने मिलकर खूब उड़ाई 
बर्फ़ डाल के शरबत,ठंडाई।

आम-खरबूजे मिलकर खाए
आइसक्रीम देख लार टपकाई।
मामा के पीछे पड़-पड़ के
आइसक्रीम-ब्रिक खूब उड़ाई।

गुल्लू -मूल्लू तुम भी आओ
संग-संग हम नानी के जाएँ।
पित्जा ,बर्गर पार्टी हो जाए
अबकी केकपेस्ट्री भी मँगवाएँ ।

धमाचौकड़ी खूब मचाएँ 
खेलें-कूदें,खुश हों जाएँ।
अबकी छुट्टी बीत न जाएँ
नानी का घर भूल न पाएँ।

  रचना  - प्रेरणा शर्मा(27-5-17)

Thursday, 6 July 2017

तिरंगे की कहानी

'तिरंगे की कहानी'
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है तिरंगे की एक अमर कहानी 
जो आज आप सबको है बतानी।

तीन रंगो की पट्टियों से बना
भारत के झंडे का नाम 'तिरंगा '

केसरिया रंग ऊपर लहराता
शौर्य-गाथा हरदम याद दिलाता ।

बीचपट्टी में जो श्वेत रंग है आता
अमन शांति का प्रतीक बन भाता।

सबसे नीचे हरा रंग सरसाता
भारत माँ को समृद्ध बताता।

'चक्र' तिरंगे के बीचों-बीच बना
हरदम चलते रहना सिखलाता।

जब-जब तिरंगा झंडा फहरता
जन-गण का मन अति हर्षता ।

आन-बान-शान के भाव जगाता
तिरंगा जब ऊँचा जग में लहराता।

स्वतंत्रता का परचम तिरंगा
ऊँचे ही ऊँचे इसे फहराना ।

लहर-लहर इसको लहराना
जग में देश का नाम बढ़ाना।

तिरंगे की खातिर वीरों की क़ुर्बानी
रहेगी याद बच्चे-बच्चे को जुबानी।

तिरंगे के गौरव की है यह कहानी ।
देश के आन-बान-शान की है कहानी।

-प्रेरणा शर्मा(15-6-17)

Sunday, 2 July 2017

बेटी से जननी तक

'अंश से संपूर्ण की ओर '
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मेरी ननद (कमला दीदी )के देवर की बेटी है, रश्मि नाम है ।बचपन में गुड़िया कहते थे। उसने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली उसका उत्तर प्रत्युत्तर  भेज रही हूँ, कृपया आप भी पढ़िए -

रश्मि ने लिखा–
"जिंदगी की परीक्षा भी कितनी वफादार हैं,उसका पेपर कभी लीक नहीं होता।"

प्रेरणा– "परीक्षा की पूर्व तैयारी के बिना ही पेपर देना होता है और उत्तर खुद ब खुद समय आने पर मिलते चले जाते हैं।😃"

रश्मि–"मामीजी आप में एक लेखिका बसी है। पहले कभी यह रूप नजर नहीं आया।"

प्रेरणा–"आपको और हमको वक्त ही कब मिला ,बेटा! अपने आप को जानने और बताने का।
हम धरा सरीखी बेटी के रूप में जन्म लेती हैं एक दूसरी धरित्री की कोख से। उसका अंश होकर भी संपूर्ण बनना होता है ना नवनिर्माण के लिए। जग में संपूर्णता प्रदान करनी होती है अपना अस्तित्व मिटाकर। बेटियाँ चहकती हैं घर आँगन में बुलबुल सी।चिंता रहित खेलती खाती ,स्वच्छंद निर्भय होकर।
अचानक मातापिता और परिवारजन का मन सयानी हो चली बेटियों के भविष्य के चिंतातुर हो उठता है।
धीरे-धीरे हिदायतें व संस्कार उसकी साँसों में बसाने का सिलसिला शुरु होता है।नादान भोला मन कुछ समझता है तो कुछ समय के हाथों छोड़ माँ की गोद में ही छुपे रहना चाहता है। उसे कहाँ पता होता है कि जिस आँचल के साये में वह हरदम रहना चाहती है वैसा ही आँचल तो उसे भी बनना है किसी का।
वह समय भी कुछ वर्षौं में आ ही जाता है जब अपनी जगह से उखाड़
नई जगह जड़ें जमाने को रोप दिया जाता है। वहाँ उसे भूलकर अपना वजूद पालन करना है पोषित करना है अपने परिवेश और वहाँ के वाशिंदों को।स्वयं को नए परिवेश में ढालकर संरक्षित करते हुए संवर्धित करना भी उसकी अपनी जिम्मेदारी होती है।इसी दौरान नवनिर्माण में नींव तो बनती ही है अपने सपनों के महल अपनी संतानों के भव्यनिर्माण और शीर्ष के स्वर्णकलशों के निर्माण में भी
जीवन साथी के साथ जुटी रहती है।
अपने अस्तित्व का भान ही कहाँ रहता है। इस तरह सबको बनाते-बनाते ही सृजन की राह पर -चलते-चलते मंजिल से पहले कहाँ मुड़ पाती है वह।नहीं पता होता कि जो वह मंजिल समझती थी वही असल में उसके गंतव्य का प्रारंभ होता है।
तब फिर से समेटती है बचेखुचे वजूद को ।शायद जीना शुरु करती है सांझ को सुबह की माफिक । बनने को रोशनी । किरण दीपक की । खुद के तले अंधकार हो भले जग को जगमग करने की जिद उसे हौंसला देती है आखिरी साँस तक,आस का दामन पकड़े हुए अपनी माँ के जैसे ही ।"

रश्मि– "सही कहा आपने।
जिंदगी एक अभिलाषा है, क्या इसकी परिभाषा है,संवर गई तो दुल्हन नहीं तो एक तमाशा है।"

प्रेरणा– "प्रकृति की तरह ही परिवर्तनशील और पोलन-पोषण कर संपूर्णता प्रदान करना एक स्त्री का दायित्व होता है। उसे सँवारना होता है जग को ।
बिना तमाशा बने और बनाए!"

[वार्ताकार-रश्मि शर्मा व प्रेरणा शर्मा
दिनांक –31-5–17]

Saturday, 1 July 2017

'हरसिंगार'

'हरसिंगार '
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पडोस में रहने वाली बियानी आंटी के घर के बाहर उत्तर-पूर्व कोने पर हरसिंगार का पेड़ लगा हुआ है।

जब भी उसके नीचे बिछी फूलों की चादर को देखती हूँ तो लरह-तरह के भावों की लहरें मन में उठती -गिरती हैं ।कभी फूलों की श्वेत , निर्मल .सुंदरता से मन मुग्ध हो उठता है तो कभी वे  शहीद रणबाँकुरों से नजर आते है।
कभी जीवन-दर्शन पल में समझा जाते हैं।

ये कुछ 'ताँका '  ऐसे ही भावों से बने हैं-

1-
हरसिंगार 
महकाए आँगन
झरते पुष्प
हँसते मिटकर
जीवन की मानिंद।

2-
नन्हें-सितारे
हरसिंगार बन
हँसी बिखेरें
धवल चाँदनी सी
बन मीत मन के।

3-
पुष्प अनूठे
तारे ज़मीं पर ज्यों
दूधिया हँसी
हरसिंगार हँसे
मन-उपवन में।

4-
हरसिंगार 
मस्तक पर
तिलक केसरिया 
बन रणबाँकुरे 
करें धरा को नमन।

5-
जीवन-पुष्प
हरसिंगार सम 
खुशी-खुशी से
खिलकर निशा में
प्रात: ज़मीन पर

6-
खुश रहना
खिलना-मुस्कराना
जीवन खेला
दो दिन का है मेला
हरसिंगार बोला

7-
हरसिंगार
हँस-हँस कहता।
हँस ले  जी ले
आया है सो जाएगा
संग क्या ले जाएगा ।

प्रेरणा शर्मा (2-3-17)

मोबाइल युग

'मोबाइल'

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सुबह के  (6-6:15am) छ:-सवा-छ: बजे का समय। सूर्योदय की धूप आने में कुछ समय बाक़ी है। सैर से लौटते समय दृष्टि एक निर्माणाधीन मकान की और जाती है।

 दो व्यक्ति चुपचाप बैठे हैं और गर्दन झुकी हुई है । थोड़ा नज़दीक जाने पर पता चलता है कि उनके हाथों में एक-एक मोबाइल है ।  

वहीं पर थोड़ी दूर एक औरत भी है ।अपने वह छोटे से बच्चे को गोद में लिए है । मुझे लगता है  शायद निरक्षर और तकनीक से अनभिज्ञ होने के कारण मोबाइल की दुनिया से यह अछूती है ; पर तभी रिंग टोन की आवाज से कान बज उठते हैं और वह अपने ब्लाउज की गुप्त जेब में से मोबाइल निकाल मोबाइल की स्क्रीन पर दिखनेवाली फोटो देखकर प्रसन्न हो बात करने लगती है। 

मेरी ओर नजर जाते ही उसकी मुसकराहट बढ जाती है उसकी मौन -मुस्कान 'युग बदल रहा है' ---की तरफ इशारा कर रही है। 

'मोबाइल' , रोटी, कपड़ा और मकान से भी पहले की जरूरत बन गई है।

 मैं भी अपनी जेब से मोबाइल निकाल  कर तस्वीर लेती हूँ।एक क्षण को मन कहता है -बिना बताए किसी की तस्वीर लेना सही नहीं है तो दूसरे ही क्षण यह सोच कर कि " इनकी पीठ ही तो दिख रही है  फोटो में'। अपने को सही ठहराते हुए विचार  आता हैं कि

संचार-क्रांति  का युग है तगड़ा 

तन पर चाहे न हो पूरा कपड़ा

मोबाइल तो सुबह-सबेरे ही 

सबने अपने हाथ में पकड़ा। 

-प्रेरणा शर्मा (19-6-2017)

बचपन

'यह बचपन भी ना '
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बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापा !
जीवन की अवस्थाएँ बदलती हैं ,पर बचपन हरदम साथ  होता है अंत तक।
जो सपने बुने होते हैं  बचपन में ,वे वर्तमान के विधान गढ़ते हैं तो भविष्य की नज़रों में उदीयमान सितारों सी चमक भरते हैं ।
विरासत में मिला बचपन इबादत की माफ़िक़ ज़िंदगी को नूर बख़्शता है तो आदमी की शख़्सियत में रंग भी तो बचपन  की कूँची से ही भरे जाते हैं।
वो नज़ाकत  जो बचपन की मासूमियत का सहज हिस्सा होती है वह आज जवानी में  खोई -खोई होने पर भी याद जब आ जाए बचपन तो वापिस कदम मोड़ती नजर आती है।
जिस बचपन को छोड़कर हम जवानी के ख़ूबसूरत ख़्वाबों में खो जाने को बेताब हो ,खुले आसमान में उड़ जाने को आतुर रहते थे ; उसी बचपन के भवन की मुँडेर पर खड़े हो उम्र की लंबी डोर से बंधी बालपन की  पतंग को अपने क़रीब लाना चाहते हैं ।
उम्र के हर  दौर में जब कभी मन बचपन को पाने की धुन गुनगुनाता है और लो बचपन फिर लौट आता है।
वाह रे ! बचपन कमाल का है तू भी !
तेरी याद भर आ जाने से  जीवन जलसा नजर आता है और होकर बेख़बर  ज़िंदगी की  पशोपेश से चंद लम्हों
के लिए ही सही बचपन का दुलार जन्नत की सैर को ले जाता है ।
बालमन की नादानियों की गुदगुदाहट का ख़याल भर ही हर शख़्स के तस्सवुर में हँसी का ख़ालिस दरबार सजाता है । 
इन जज़्बातों की नींव बना सिर पर माँ का नरम हाथ और बड़ो का आशीर्वाद  क्या कोई भूल पाता है ? हौले से नरम अंगुलियों से बालों को सहलाना बार-बार याद आता है ।
तितली के रंगों सा बचपन क़िस्से- कहानियों के फूलों की महक से ज़िंदगी की फ़िज़ाओं महकाता हुआ , अपने संग मकरंद की मीठी सी मिठास लिए उड़ा-उड़ा जाता है ।
 यह बचपन भी ना ! 
यही तो है जो सारी ज़िंदगी साथ निभाता है।

-प्रेरणा शर्मा (16-11-16)