'बरखा-झड़ी'
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सुबह बारिश की टप-टप से नींद खुली तो आँखें मलते हुए राधिका ने माला को चाय बनाने को कहा और
खुद बाहर बरामदे में न जाने किस ओर टकटकी लगाए खडी़ की खडी़ रह गई।
बारिश और तेज हो गई है। रिमझिम सी झड़ी झमाझम होकर पेड़-पौधों का तन-मन भीगोने लगी। राधिका सामने आम के पेड़ की शाखा पर कल्पना के झूले डालने में इतनी व्यस्त हो गई कि माला कब चाय लेकर उसके पास आ गई पता ही नही चला।
" मैडम ,आज आपको जाना नहीं है क्या?"
आवाज सुनकर ही उसे ध्यान आया कि वह चाय ले आई थी।
"आज रविवार है ना! आज नहीं जाऊँगी।"
"पर आप तो अक्सर रविवार को घर पर नहीं रहती हैं ना।"
तुम्हे कहा ना आज मैं घर पर ही हूँ । अब जाओ अपना सफाई का काम कर लो। कहकर भेज दिया था माला को तो वहाँ से ।
पर "ठीक ही तो बोला था माला ने " सोचने लगी थी वह।
अकसर रविवार को निकल ही तो जाती है घर से वह । घूमते-घामते मुड़ जाते हैं कदम ,एक छोटे से पालना घर की तरफ ,जहाँ किलकारियाँ तो गूँजती हैं पर उनकी जन्मदात्रियों तक वे किलकारियाँ सुनाई नहीं देती थी। उन्हीं किलकारियों को जीते हुए उसके रविवार जो बीतने लगे थे ।
वह शायद डरने लगी है वर्तमान पर अतीत के हावी होने से ; इसीलिए तो कुछ वर्षों से वह व्यस्त रखने के लिए जॉब करने लगी थी । एम.बी.ए. किया हुआ था उसने और अकाउंट्स का काम भी अच्छे से सँभाल सकती थी । इस कारण घर के पास ही के एक ऑफिस में मैनेजर की पोस्ट बिना भाग दौड़ के ही लग गई थी ।
सोमवार से शनिवार ऑफिस में बीत जाते दिन।
अकसर रविवार को भी निकल ही जाती है घर से वह ।
पर आज की बारिश ने फिर से याद दिला दी थी पिछले वर्षो की बारिश की बातों को।
तब घर में रहना भाता था उसे। घर में रहते हुए न सोमवार अलग लगता था न रविवार सब एक जैसे थे । कौनसी छुट्टी कब आती है पता ही नहीं चलता था कभी । सब दिन एक सी रौनक लिए हुए होते थे ।
राधिका आज इत्मिनान से पूरा इतवार यादों के झूले में झूलते हुए बिता देना चाहती थी।
उसे याद आ रही थी किलकारियाँ भरते,बारिश में भीगते, मस्ती करते कृतिका और कार्तिकेय की।
उसके दोनों बच्चे दूर रहते है फिर भी कहाँ भूल पाती है ।
याद आ रहा था उसे एक हाथ में छतरी थामें बरसात से भीगने से बचाने के लिए स्कूल बस से आ रहे अपने दोनों बच्चों को लेने जाना। स्कूल बस का स्टैंड घर से थोडी़ दूरी पर था । सड़क पर घुटनों तक का पानी भर जाता था। छतरी दो होती थी पर उनको बैग बचाने के काम में ले बच्चे पानी के बीचों - बीच छपा-छप-छई करते हुए मुँह पर फुहारों का आनंद ले रहे होते थे और भीगते भागते घर पहुँचते। छतरी और बैग माँ के हवाले कर छत से बह रहे बरसाती नालियों के नीचे दोनों का नहाना जैसे कल की ही बात हो। रही सही कसर प्रणव पूरी कर देते थे उनके साथ छपाक-छप मचाते खूब नहाते थे तीनों बारिश में। उन दिनों लंच में पापा -बच्चे साथ -साथ ही जो पहुँचते थे।
तेज बारिश वाले दिन हर साल बारिश में भीगना और छत से गिर रही बरसाती नाले के नीचे मौका मिलते ही उछल-उछल कर नहाना जैसे कल की ही बातें हों।
आज प्रणव शहर से बाहर गए हैं अपने काम के सिलसले में। दोनों बच्चों की जॉब भी यहाँ नहीं है ।
कहते हैं बीता समय लौट के नहीं आता पर अतीत की यादें जाती ही कहाँ हैं मन से।
आज राधिका फिर से उन तीनों को बारिश भीगते हुए छत से कूदते बरसाती पानी में भीगते हुए मन ही मन निहार रही है । आज कहने को वह घर पर अकेली है पर उसने आम पेड़ के नीचे जाने की हिम्मत कर ली है ।
आज भी उसने व्यस्त रखा है अपने आपको । आज उसने वर्तमान में जीने की एक कोशिश भर की है।
अतीत के सुखद साये को वर्तमान के साथ-साथ रखने की हिम्मत जुटाने लगी है राधिका।
आज रविवार है बरखा की झडी़ रुकने का नाम नहीं ले रही है। कभी धीमें तो कभी तेज हो-हो कर मन में भावनाओं की नदियाँ तो बहा रही है पर राधिका ने जीवन नौका में हिम्मत की पतवार बना मन का चप्पू थामने की ठान ली है।
रचना-
प्रेरणा शर्मा,जयपुर
( 23-7-17)




