'अंश से संपूर्ण की ओर '
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मेरी ननद (कमला दीदी )के देवर की बेटी है, रश्मि नाम है ।बचपन में गुड़िया कहते थे। उसने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली उसका उत्तर प्रत्युत्तर भेज रही हूँ, कृपया आप भी पढ़िए -
रश्मि ने लिखा–
"जिंदगी की परीक्षा भी कितनी वफादार हैं,उसका पेपर कभी लीक नहीं होता।"
प्रेरणा– "परीक्षा की पूर्व तैयारी के बिना ही पेपर देना होता है और उत्तर खुद ब खुद समय आने पर मिलते चले जाते हैं।😃"
रश्मि–"मामीजी आप में एक लेखिका बसी है। पहले कभी यह रूप नजर नहीं आया।"
प्रेरणा–"आपको और हमको वक्त ही कब मिला ,बेटा! अपने आप को जानने और बताने का।
हम धरा सरीखी बेटी के रूप में जन्म लेती हैं एक दूसरी धरित्री की कोख से। उसका अंश होकर भी संपूर्ण बनना होता है ना नवनिर्माण के लिए। जग में संपूर्णता प्रदान करनी होती है अपना अस्तित्व मिटाकर। बेटियाँ चहकती हैं घर आँगन में बुलबुल सी।चिंता रहित खेलती खाती ,स्वच्छंद निर्भय होकर।
अचानक मातापिता और परिवारजन का मन सयानी हो चली बेटियों के भविष्य के चिंतातुर हो उठता है।
धीरे-धीरे हिदायतें व संस्कार उसकी साँसों में बसाने का सिलसिला शुरु होता है।नादान भोला मन कुछ समझता है तो कुछ समय के हाथों छोड़ माँ की गोद में ही छुपे रहना चाहता है। उसे कहाँ पता होता है कि जिस आँचल के साये में वह हरदम रहना चाहती है वैसा ही आँचल तो उसे भी बनना है किसी का।
वह समय भी कुछ वर्षौं में आ ही जाता है जब अपनी जगह से उखाड़
नई जगह जड़ें जमाने को रोप दिया जाता है। वहाँ उसे भूलकर अपना वजूद पालन करना है पोषित करना है अपने परिवेश और वहाँ के वाशिंदों को।स्वयं को नए परिवेश में ढालकर संरक्षित करते हुए संवर्धित करना भी उसकी अपनी जिम्मेदारी होती है।इसी दौरान नवनिर्माण में नींव तो बनती ही है अपने सपनों के महल अपनी संतानों के भव्यनिर्माण और शीर्ष के स्वर्णकलशों के निर्माण में भी
जीवन साथी के साथ जुटी रहती है।
अपने अस्तित्व का भान ही कहाँ रहता है। इस तरह सबको बनाते-बनाते ही सृजन की राह पर -चलते-चलते मंजिल से पहले कहाँ मुड़ पाती है वह।नहीं पता होता कि जो वह मंजिल समझती थी वही असल में उसके गंतव्य का प्रारंभ होता है।
तब फिर से समेटती है बचेखुचे वजूद को ।शायद जीना शुरु करती है सांझ को सुबह की माफिक । बनने को रोशनी । किरण दीपक की । खुद के तले अंधकार हो भले जग को जगमग करने की जिद उसे हौंसला देती है आखिरी साँस तक,आस का दामन पकड़े हुए अपनी माँ के जैसे ही ।"
रश्मि– "सही कहा आपने।
जिंदगी एक अभिलाषा है, क्या इसकी परिभाषा है,संवर गई तो दुल्हन नहीं तो एक तमाशा है।"
प्रेरणा– "प्रकृति की तरह ही परिवर्तनशील और पोलन-पोषण कर संपूर्णता प्रदान करना एक स्त्री का दायित्व होता है। उसे सँवारना होता है जग को ।
बिना तमाशा बने और बनाए!"
[वार्ताकार-रश्मि शर्मा व प्रेरणा शर्मा
दिनांक –31-5–17]