Tuesday, 6 September 2016

जय भारत!!!

विश्वबधुत्व
नुमाइश में रखा
जैसे ज़ेवर।
ज़ेवर की चमक
करती लकदक।

शांति-प्रयास
शीतलअहसास
दिल में जगे।
श्वेत कपोत सदा
 कोने-कोने से उड़े ।

अमन माला
भारत ने पहनी
सौग़ात मिली।
जर्जर मानवता
स्वजन बलिदान।

बड़ी ताक़तें
संधियाँ-प्रतिबंध
लगा लूटती।
विकास की ज़ंजीर
बेवजह खींचती।

पड़ौसी देश
ज़हर उगलते
विश्वासघाती।
भुजंग-पय-पान
मिलेगा विष-दान।

नाम तो पाक
हरकतें नापाक
हरकदम।
तेवर दग़ाबाज़
बड़ा पैंतरेबाज।

मुँह में राम
बग़ल में छुरी
झूठ ही झूठ।
है पाक बेईमान
बडा बदमिज़ाज ।

ख़ून-खराबा
अस्त-व्यस्त जीवन
सहमी साँसें ।
भारती का दामन
बेबस-औ-लाचार।

बहुत हुआ
बंधुत्व का ज़ेवर
शांति की माला।
कोई लातों का भूत
कब बातों से माना।

कब तलक
सहनशील बनें
ज़हर पिएँ?
घाव दगे के सहें
प्रत्यंचा क्यों न तने?

जागो जगाओ
भुजबल संभालो
देश बचाओ।
पौरुष दिखलाओ
दुश्मन ललकारो।

जय भारत!
उद्घोष गगन में
गूँज हवा में।
दुश्मन थरथराए
भारत खिलखिलाए।
-प्रेरणा शर्मा
जयपुर (राजस्थान )
19-07-16 (भारतीय सेना- दिवस )

नन्ही चिड़िया का जीवन गीत

1-
नन्ही चिड़िया
कचनार के फूल
जाती लौटती
बारी -बारी कान में
कहे बात मन की।
2-
छोटी चिड़िया
जा फुनगी-फुनगी
है इठलाती
संग हवा के डोले
मन के झूले झूले।
3-
पीत- वर्ण की
सुनहली तितली
प्रीत पालती
चंचलता से उड़े
बन बाग़ की रानी।
4-
घर-आँगन
रौनक़ बनकर
यहाँ से वहाँ
चिड़िया सी चहके
बिटिया हरदम।
5-
सोन चिरैया
तिनके-तिनके से
नीड़ बनाए
सुख-पल बाँटती
गाए गीत प्यार के।
6-
गौरया संग
मनवा उड़ चला
गगन मापे
प्रीत भरा जहान
आँचल में भरने।
7-
मन बावरा
उड़े ऊँचे नभ में
बादल छाँव
आशियाँ बनाकर
लौटे न धरा पर।
8-
विधु-चन्द्रिका
छितराती सौम्यता
निशा में जागे
पहन पायलिया
छम-छम नचती।
9-
जीवन-गीत
वीणा के तार बजें
हौले-हौले से
झन-झन झंकृत
स्वप्न संगीत सजे।
10-
अंबर ओढ़े
तारों भरा आँचल
चंद्रमा थामे
विभावरी दामन
संग-संग झूमता।
11-
दूधिया- प्रभा
चन्द्र- किरणों से
रात नहाई
रजत-पटल को
पहन इतराई।
12-
भोर जगाती
अर्श-फलक पर
आफ़ताब को
अधरों पर स्मित
अरुणोदय लाली।
13-
तारो की छाँव
सूरज संध्या- काल
गोधूलि-वेला
विश्राम कर रहा
दे दिवस विदाई।
                   -प्रेरणा शर्मा

'धन्य है हम'

'धन्य हैं हम '
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ब्रह्म-वेला में तन्द्रा टूटी भी नहीं थी कि मस्तिष्क में विचार कौंधने लगे। युग-पुरूष पिता की छवि मन-मस्तिष्क में उभरने लगी।शिक्षक- दिवस हो और माता-पिता की स्मृति न आएँ कैसे मुमकिन था? आज प्रात: ही बचपन की धुँधली यादों के चित्र ज्यों -ज्यों स्पष्ट होने लगे उनकी रोशनी की चमक मेरे चेहरे पर भी आने लगी ।
विद्वान,कर्मठ ,कृषक पिता हम भाई-बहनों को अल-सुबह ही जगाकर अध्ययन के लिए नियत स्थान पर बैठने का निर्देश देते। जाने वह कैसा सम्मोहन था जो इतनी सुबह जागकर पढ़ना सुखद लगता ।
तब न कुर्सी थी न मेज़ ।अनाज की ख़ाली हुई बोरियों का आसन और सर्दियों की ठंड में गर्मी पाने का एकमात्र सहारा सूरज की गुनगुनी धूप ।आज भी स्मृति- पटल पर अमिट छाप बनाकर कर्मठता को प्रेरित करती है।
सुबह चार बजे पिता की एक आवाज़ से बिस्तर छोड़ सक्रिय हो जाने वाले हम भाई-बहन प्रारंभिक शिक्षा कक्षा-1 तक पिताजी के सानिध्य में घर पर ही पूरी करते और  पाँच वर्ष की उम्र में दूसरी कक्षा में विद्यालय में प्रवेश पाने के अधिकारी बन जाते । इससे पहले पिताजी ही
गुरु के रूप में स्लेट- खडिया    (chalk)  व किताबों से शिक्षा की प्रतिमूर्ति बन पाठ पढ़ाया करते थे।
 बोरी का आसन और 'पाटी- बरता' ले वर्णमाला ,संख्या गिनती, पहाड़े जोड़ -बाक़ी ,गुणा-भाग करते -करते हम आगे बढ़ते जाते।इस दौरान पिताजी अपना कार्य कर रहे होते।
लिखते -मिटाते पूरी 'पाटी'अक्षरों से भर लेने पर जब हम उन्हें दिखाने जाते तो नज़रों में शाबाशी का भाव पा धन्य हो पुनः अभ्यास -प्रक्रिया का हिस्सा बन जाते। यह क्रम प्रतिदिन अनवरत चलता रहता।
विद्यालयी शिक्षा के लिए पिता के द्वारा डाली गई यह नींव इतनी गहरी और मज़बूत थी कि प्रतिस्पर्धा में सहपाठियों का हमसे आगे निकलना भला संभव कैसे हो पाता ? पर एेसे में अहंकार का भाव बालमन में भी उनकी दी गई 'स्थितप्रज्ञ' की सीख के कारण कभी अंकुरित न हो पाया। वे कहते थे कि मनुष्य को सुख- दु:ख दोनों समय में समान रहने की चेष्टा करनी चाहिए। ख़ुशियाँ आने पर अहंकार व उच्छृंखल नहीं होना चाहिए। दु:ख अथवा
परेशानी में स्वयं को मज़बूत रखकर आगे बढ़ना चाहिए।
भविष्य में भी जीवन के हर मोड़ पर जादुई व्यक्तित्व के धनी मेरे माता-पिता सदैव प्रोत्साहित करते रहे।
उनकी सीख- "सदैव सबसे सीखो।" आज भीमेरी प्रेरणा स्रोत है। 'प्रकृति की प्रत्येक चीज़  हमें सीख देती है। हमारे चेतन-अवचेतन व्यक्तित्व की निर्मात्री है।' उनके ये विचार चिर
स्मृति बनकर प्रकृति-प्रेम  के प्रति मुझको प्रोत्साहित कर रहे हैं।
आज मैं स्वयं एक शिक्षिका के रूप में विद्यालयी -शिक्षा की ज़िम्मेदारी  वहन करने की क़ाबिलियत रखती हूँ।परंतु आज भी यह महसूस करती हूँ कि अभी
बहुत कुछ सीखना बाक़ी है।
अभी तो तोला में से मासा भी तो नहीं सीखा है।
आज शिक्षक-दिवस और गणेश-चतुर्थी के पावन दिन की बधाई प्रेषित करते व स्वीकार करते प्रथमपूज्य भगवान गणेश के साथ-साथ सभी गुरूजन व शिक्षक-वृंद का स्मरण भी हो रहा है जिन्होंने मुझे इस क़ाबिल बनाया।
जीवन की अर्द्धशती के इस मोड़ पर आते- आते अनेक नाम जुड़ते चले गए जिनसे बहुत-कुछ सीखा। कुछ शिक्षकों के नाम अभी भी याद हैं तो कुछ पर अतीत का साया आ जाने से यादों के दर्पण में छवि कुछ धुँधली हो चली है ;परंतु उनकी सीख और उनके गुण मेरे ज़हन में उतर कर ,परिश्रम की आँच में पिघलकर नए साँचे में ढल चुके हैं। नवीन रूप लेकर मेरे कार्यों में आज भी जीवंत रूप में दृष्टिगोचर हैं।
 आज मैं श्रद्धावनत होकर
उस प्रत्येक शिक्षक को नमन
करती हूँ जिसने मुझे शिक्षक की प्रतिकृति का रूप दिया। सीखने का क्रम निरंतर जारी है अत: बड़ों -छोटों , साथियों के साथ सीखाने वाले प्रकृति के सभी
उपादानों को मेरा कोटिश: नमन व हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार हों !
"धन्य है हम
भाव-विह्वल है मन
गुरु-शिष्य का।"
( स्थानीय भाषा में स्लेट-को पाटी व चॉक को बरता कहते थे )
लेखिका -प्रेरणा शर्मा
(05-09-16)
२२८-प्रताप नगर,खातीपुरा रोड
वशिष्ठ मार्ग ,वैशाली नगर
जयपुर ,राजस्थान (३०२०२१)